हौंसलों की ऊंची उड़ान

कहते हैं जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है। बडी उपलब्धियां वही हासिल करता है जो निरंतर संघर्ष के लिए तैयार होता है। प्रतिभा तो हर शख्स में होती है, लेकिन सभी बडी उपलब्धियां हासिल नहीं कर पाते। इन्हें हासिल वही करते हैं जो विपरीत स्थितियों से घबराए बगैर यह ठान लेते हैं कि उन्हें यह काम करना ही है और इसमें पूरी तरह सफल होना है। हालांकि इसके पहले यह तय कर लेना जरूरी होता है कि आपको करना क्या है? किस दिशा में जाना है? फिर उस मंजिल तक पहुंचने में चाहे कितनी भी अडचनें और परेशानियां क्यों न आएं, उन्हें हंसते-हंसते झेलने के लिए तैयार रहें। यह कहना भी गलत नहीं होगा कि किसी भी क्षेत्र में किसी व्यक्ति की सफलता अकेले उसके ही प्रयासों का परिणाम नहीं होता। हर सफल व्यक्ति के पीछे कई लोग होते हैं। वे माता-पिता हो सकते हैं, भाई-बहन हो सकते हैं, पति या पत्नी, बच्चे, मित्र और यहां तक कि अपरिचित लोग भी हो सकते हैं। कभी यह सहयोग आर्थिक होता है, तो कभी भावनात्मक और कभी बौद्धिक भी। विपरीत परिस्थितियों में आप सिर्फ किसी का हौसला बनाए रखें तो यह भी कोई मामूली सहयोग नहीं होगा।

संसार में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अपनी विफलता से हार मान कर ठहर जाते हैं। वे मान लेते हैं कि शायद यही उनकी नियति है। इसके विपरीत कुछ लोग बार-बार विफल होकर भी अपने प्रयास निरंतर जारी रखते हैं। वहीं कुछ लोग यह मानकर कि अब हमारी इस दिशा में संघर्ष की उम्र नहीं रही, अपनी महत्वाकांक्षाएं अपने बच्चों पर थोपते हैं। जबकि कुछ लोग धारा के साथ बहने में यकीन करते हैं और ऐसे ही बडी उपलब्धियां हासिल करते हैं। वे अपने परिवार के छोटे सदस्यों को उसी दिशा में आगे बढने देते हैं, जो वे स्वयं अपने लिए चुनते हैं। वे इसमें ही उन्हें सहयोग करते हैं। जिन्हें यह सहयोग मिलता है, उनके लिए रास्ता थोडा आसान हो जाता है। कुछ और हो न हो, कम से कम इतना तो होता ही है कि उनका हौसला बना रहता है और संघर्षो के दौर में हौसले का बने रहना मामूली बात नहीं है।

विपरीत परिस्थितियों के बावजूद

वैसे ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने हर तरह से विपरीत परिस्थितयों के बावजूद वह सब हासिल किया, जो चाहा। पूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम इसके जीवंत उदाहरण हैं। बचपन में उन्होंने बहुत कठिनाइयों और आर्थिक संकटों के बावजूद पढाई जारी रखी। तब शायद कोई नहीं जानता रहा होगा कि यह मेधावी छात्र एक दिन राष्ट्र का नेतृत्व करेगा और नया इतिहास रचेगा। तमाम कठिनाइयों के बावजूद उन्होंने अपनी जगह बनाई।

आज संसार में सबसे अमीर आदमी के रूप में प्रतिष्ठित बिल गेट्स का बचपन आर्थिक तो नहीं, पर भावनात्मक रूप से संघर्षपूर्ण रहा है। ये अलग बात है कि अपनी धुन के पक्के बिल गेट्स ने कभी इन बातों की परवाह नहीं की। बिल गेट्स बचपन में निहायत जिद्दी रहे हैं। वह अपनी बहनों के साथ घुलमिल भी नहीं पाते थे। बेहद इंट्रोवर्ट थे। मां के दिए किसी भी काम को वह पूरा नहीं करते, क्योंकि उनकी अलग दुनिया थी जिसमें वह खोए रहते। काम पूरा न होने पर मां खीझती। एक दिन इंटरकॉम पर मां ने पूछा किबिल तुम क्या कर रहे हो तो बिल ने चिल्ला कर जवाब दिया कि सोच रहा हूं। मां इस जवाब पर हैरान रह गई। चिंतित मां बिल को मनोवैज्ञानिक के पास ले गई। उन्हें समझते देर नहीं लगी कि यह बच्चा कुछ अलग है। उन्होंने बिल को सही दिशा और पूरी रचनात्मकता देने की कोशिश की। उन्हें ढेर सारी किताबें पढने को दीं। बिल की मां से कहा कि इस बच्चे को अपनी राह पर चलने दें। सिएटल के सबसे महंगे स्कूल लेकसाइड में उनका एडमिशन करवाया गया। यहां आकर उनकी दोस्ती कंप्यूटर से हुई। जो उनका भविष्य बना। यहां केवल 13 साल की उम्र में उन्होंने प्रोग्रामिंग और सॉफ्टवेयर डेवलप करनी शुरू कर दी। कंप्यूटर के बादशाह बन गए।

हर बच्चा है विशेष

याद रखें कि हर बच्चा अपने-आपमें विशेष है। केवल अपने माता-पिता के लिए ही नहीं, बल्कि समाज और देश के लिए भी। हर बच्चे के भीतर कोई न कोई खास प्रतिभा और योग्यता जरूर होती है। सवाल उसे प्रोत्साहन देकर बाहर निकालने का है। वैसे तो बच्चे को यह वरदान कुदरत से ही मिला है कि वह हर पल खुश रहे, ऊर्जावान रहे और निरंतर आगे बढने की कोशिश करे। यह भी महत्वपूर्ण है कि इस सबके लिए उसे पारिवारिक माहौल, भरपूर स्नेह और सही समझ की जरूरत होती होती है। उसे चाहिए ऐसा सुरक्षा चक्र जो न केवल उसे आश्वस्त रखे, बल्कि भावनात्मक और व्यावसायिक मामलों में भी उसका बडा संबल बने। जो पेरेंट्स अपने बच्चों को यह माहौल दे पाते हैं उनके बच्चे आगे निकल आते हैं। वहीं जिन्हें यह माहौल नहीं मिल पाता है वे पीछे छूट जाते हैं। यह कहना गलत नहीं होगा कि जिस तरह किसी की सफलता में कई लोगों का हाथ होता है, वैसे अपनी विफलता के लिए भी कोई व्यक्ति अकेले जिम्मेदार नहीं होता है।

पहचानें क्षमताओं को

डॉ. जयंती दत्ता का मानना है, हर बच्चे के भीतर विकास की जबरदस्त क्षमता होती है। हम ही उसे बचपना कहकर टाल देते हैं। जरूरत उसकी क्षमताओं को पहचान कर, उसे समझने और विकसित करने की है। यह काम यदि अपने से संभव न हो तो किसी प्रोफेशनल की मदद भी ली जा सकती है। इसके लिए बेहतर होगा कि सबसे पहले अपने बच्चे से अच्छे रिश्ते बनाएं। उसे समझने की कोशिश करें। कई बार नन्हे दिमाग में भी बडे काम की बात छिपी होती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि किसी भी व्यक्ति की सफलता की नींव भावनात्मक लगाव पर ही टिकी होती है। इसे मजबूत ब नाएं। परवरिश अनूठी चीज है जो बच्चों की प्रतिभा को तराशने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। पेरेंट्स की यह कोशिश होनी चाहिए कि इसमें कहीं कोई कमी न रह जाए। साथ ही उसकी पढाई भी बाधित न हो यह भी ध्यान रखें।

हर माता-पिता का यह कर्तव्य है कि वे बच्चों को आगे बढने में मदद करें। लेकिन इस क्रम में मूल्यों से वे टूटने न पाएं, इस बात का भी खयाल रखें। क्योंकि आपसे उनके जुडाव की स्थिति भी पूरी तरह बच्चों को आपके दिए संस्कारों पर ही निर्भर है। हमारे समाज में ऐसे पेरेंट्स की कमी नहीं है, जिन्होंने कई स्तरों पर संघर्ष कर अपने बच्चों को उसी दिशा में आगे बढाने की हर संभव कोशिश की, जिधर उन्होंने जाना चाहा। इस बार मिलते हैं कुछ ऐसे ही पेरेंट्स से, जिनके बच्चों ने उनके सहयोग से समाज में अपनी खास पहचान बनाई।

मेहनत के साथ किस्मत भी चाहिए

पिता, देवाशीष मुखर्जी

मुंबई आने से पहले मैं दिल्ली में एक मल्टीनेशनल कंपनी में विजुअल मैनेजर था। 2003 में मैं परिवार समेत मुंबई आ गया। शुरू से ही मेरी दिलचस्पी नाटकों, टीवी धारावाहिकों तथा फिल्मों में अभिनय करने की थी। मैं एफ.टी.आई. में दाखिला लेना चाहता था, मगर ग्रेजुएशन के बाद ही दाखिला मिल सकता था। 1992 में आशा चंद्रा इंस्टीट्यूट से अभिनय में डिप्लोमा किया। काम करते हुए भी मेरे अंदर का कलाकार कई बार मेरे सामने आकर खडा हो जाता। मेरी कशमकश को मेरी पत्नी समझती थी। उसने मुझे अभिनय में ही करियर बनाने की सलाह दी। वह स्वयं रेयान इंटरनेशनल स्कूल में वाइस प्रिंसिपल है। मुंबई आने के बाद मेरी दोस्ती कुछ डिस्ट्रीब्यूटर्स से हो गई थी, जो बहुत काम आई। उनकी मदद से मुझे छोटा-मोटा काम मिलता रहा। मगर अविनाश ने वह कर दिखाया जो मैं नहीं कर सका। सच है कि टेलीविजन की दुनिया में नाम कमाने वाले अविनाश ने मेरे सपनों को सच किया है। टेलीविजन में काम करने का फैसला अविनाश का अपना फैसला है और ये फैसला उसने केवल 9 वर्ष की उम्र में लिया था। उसका पहला सीरियल था मन में है विश्वास जिसमें उसने फरहान के बचपन का किरदार निभाया था। इस सीरियल की विशेषता थी सौ पेज की स्क्रिप्ट और उर्दू भाषा। पहले मुझे लगा ये नहीं कर पाएगा, मगर इसके आत्मविश्वास ने उसे भी संभव बना दिया। मन में है विश्वास के बाद अविनाश राजकुमार आर्यन में नजर आया, मगर उसकी असली पहचान बालिका वधू के जगदीश से बनी। पहले उसकी पहचान मुझसे थी, मगर आज मेरी पहचान उससे है। यह इंडस्ट्री महज एक इत्तफाक है। यहां कब, कौन, कहां पहुंच जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। जिस दिन अविनाश को न्यू टैलेंट अवॉर्ड से नवाजा गया वह मेरी जिंदगी का सबसे महत्वपूर्ण दिन था। जब अविनाश आठ साल का था तब नोएडा में एक डांस कॉम्पीटिशन में भाग लेना चाहता था। मगर मैंने इंकार कर दिया, क्योंकि उसे नाचना नहीं आता था। मेरे लाख मना करने के बावजूद उसने उसमें भाग लिया और प्रथम आया। मुझे उसके आत्मविश्वास और हौसले का लोहा मानना ही पडा। जैसा कि मैं आपसे पहले ही कह चुका हूं कि हमें आर्थिक रूप से कभी कोई परेशानी नहीं रही है। मगर अविनाश का यह मानना है कि हमें आम लोगों की तरह व्यवहार करना चाहिए और भूख लगने पर बडा पाव खाना चाहिए, क्योंकि यही संघर्ष की पहचान है। वैसे भी स्वभाव से वह मिलनसार और दूसरों को सम्मान देने वाला लडका है। भविष्य में हमारी इच्छा उसे सॉफ्टवेयर इंजीनियर बनाने की है। यह उसका सपना है।

मैंने हमेशा संतुलन बनाए रखा

मां, शिल्पा खारा

स्वीनी की सफलता के पीछे हमसे अधिक स्वीनी की अपनी मेहनत है। स्वीनी ने साढे तीन साल की उम्र में अपना पहला कमर्शियल एड अजंता टूथब्रश का किया था। उसके बाद उसने दूरदर्शन पर एक शो किया। उस समय स्वीनी बहुत छोटी थी। मैं हमेशा उसके साथ रहती थी। उसकी सबसे बडी खासियत यह थी कि उसे कैमरे या स्टेज का डर बिलकुल नहीं था। यही वजह है कि स्कूल के अधिक से अधिक कार्यक्रमों में वही नजर आती थी। स्वीनी की प्रतिभा से प्रभावित होकर मैंने उसका पोर्टफोलियो बनवाया। स्वीनी के फोटोग्राफ्स कई प्रोडक्शन हाउसेज को भेजीं। इत्तफाक से कुछ ही महीनों में हमें सकारात्मक जवाब आने लगे। जहां कहीं ऑडिशन होता मैं स्वीनी को ले जाती। मुझे खुशी है, एक मां होने के नाते मैंने जो अपार क्षमताएं स्वीनी में देखीं, उनको लोगों ने भी सराहा। 2005 में जब उसे अमिताभ जी के साथ फिल्म चीनी कम मिली वो लम्हा मेरे लिए सबसे यादगार था। उस फिल्म में बच्चन जी के सामने काम करना स्वीनी के लिए कितना चुनौतीपूर्ण था, मैं नहीं जानती। मेरे लिए यह बहुत बडी बात थी। इसके लिए मैं बच्चन जी को धन्यवाद दूंगी, जिन्होंने स्वीनी से दोस्ती करके उसे फिल्म में एकदम सहज कर दिया। वैसे इसके लिए एक हफ्ते की वर्कशॉप भी काम आई जो निर्देशक ने करवाई थी।

स्वीनी अब तक 75 कमर्शियल और 13 फिल्में कर चुकी है। सभी बडे ब्रैंड तथा सेलिब्रिटीज केसाथ काम कर चुकी है। मगर आज भी वह लम्हा मेरे दिल की अनंत गहराइयों में बसा हुआ है, जब वह पहली बार टेलीविजन पर नजर आई थी। स्वीनी ने यूं तो सबसे पहले अजंता टूथब्रश का विज्ञापन किया था, मगर वह विज्ञापन तब तक टेलीविजन पर नहीं आया था। उससे पहले उसका दूरदर्शन पर पहला कार्यक्रम आया, जो घुंघरूओं पर आधारित था। जिस दिन रात को साढे आठ बजे उसका एपिसोड दिखाया जाने वाला था, हमारे घर में त्योहार जैसा माहौल था। उसे कभी ऐसा नहीं लगा कि उस पर काम और पढाई का काफी दबाव है। उसने दोनों चीजों को बेहद समझदारी और खूबसूरती से हैंडल किया। फिलहाल मैं उसे कोई भी फिल्म या कोई प्रोजेक्ट हाथ में लेने नहीं दे रही। मुझे लगता है कि अभी स्वीनी के लिए पढाई बहुत जरूरी है। उसे अपना पूरा ध्यान पढाई पर ही देना चाहिए।

स्वीनी की सफलता के पीछे हमसे अधिक स्वीनी की अपनी मेहनत है। स्वीनी ने साढे तीन साल की उम्र में अपना पहला कमर्शियल एड अजंता टूथब्रश का किया था। उसके बाद उसने दूरदर्शन पर एक शो किया। उस समय स्वीनी बहुत छोटी थी। मैं हमेशा उसके साथ रहती थी। उसकी सबसे बडी खासियत यह थी कि उसे कैमरे या स्टेज का डर बिलकुल नहीं था। यही वजह है कि स्कूल के अधिक से अधिक कार्यक्रमों में वही नजर आती थी। स्वीनी की प्रतिभा से प्रभावित होकर मैंने उसका पोर्टफोलियो बनवाया। स्वीनी के फोटोग्राफ्स कई प्रोडक्शन हाउसेज को भेजीं। इत्तफाक से कुछ ही महीनों में हमें सकारात्मक जवाब आने लगे। जहां कहीं ऑडिशन होता मैं स्वीनी को ले जाती। मुझे खुशी है, एक मां होने के नाते मैंने जो अपार क्षमताएं स्वीनी में देखीं, उनको लोगों ने भी सराहा। 2005 में जब उसे अमिताभ जी के साथ फिल्म चीनी कम मिली वो लम्हा मेरे लिए सबसे यादगार था। उस फिल्म में बच्चन जी के सामने काम करना स्वीनी के लिए कितना चुनौतीपूर्ण था, मैं नहीं जानती। मेरे लिए यह बहुत बडी बात थी। इसके लिए मैं बच्चन जी को धन्यवाद दूंगी, जिन्होंने स्वीनी से दोस्ती करके उसे फिल्म में एकदम सहज कर दिया। वैसे इसके लिए एक हफ्ते की वर्कशॉप भी काम आई जो निर्देशक ने करवाई थी।

स्वीनी अब तक 75 कमर्शियल और 13 फिल्में कर चुकी है। सभी बडे ब्रैंड तथा सेलिब्रिटीज के साथ काम कर चुकी है। मगर आज भी वह लम्हा मेरे दिल की अनंत गहराइयों में बसा हुआ है, जब वह पहली बार टेलीविजन पर नजर आई थी। स्वीनी ने यूं तो सबसे पहले अजंता टूथब्रश का विज्ञापन किया था, मगर वह विज्ञापन तब तक टेलीविजन पर नहीं आया था। उससे पहले उसका दूरदर्शन पर पहला कार्यक्रम आया, जो घुंघरूओं पर आधारित था। जिस दिन रात को साढे आठ बजे उसका एपिसोड दिखाया जाने वाला था, हमारे घर में त्योहार जैसा माहौल था। उसे कभी ऐसा नहीं लगा कि उस पर काम और पढाई का काफी दबाव है। उसने दोनों चीजों को बेहद समझदारी और खूबसूरती से हैंडल किया। फिलहाल मैं उसे कोई भी फिल्म या कोई प्रोजेक्ट हाथ में लेने नहीं दे रही। मुझे लगता है कि अभी स्वीनी के लिए पढाई बहुत जरूरी है। उसे अपना पूरा ध्यान पढाई पर ही देना चाहिए। मेरे सपने आकाश ने पूरे किए

मां, ज्योति नायर

मुझे अभिनय से लगाव था, लेकिन उस दौर में न तो बच्चों के लिए टैलेंट कॉन्टेस्ट थे, न रिअलिटी शोज थे। मेरी बडी बेटी आकांक्षा होनहार है, पर उसे एक्टिंग में दिलचस्पी नहीं थी। जबकि आकाश को शुरू से अभिनय व भिन्न सांस्कृतिक गतिविधियों में दिलचस्पी रही है। मुझे लगा था कि जिन कलाओं में मेरा रूझान था, उन्हें करने का मौका मुझे नहीं मिला। यदि आकाश में हुनर है तो वह क्यों न उन्हें पूरा करे? मुझे नहीं पता था कि गलाकाट प्रतियोगिता के युग में आकाश को कैसे मौका मिलेगा? हमारा कोई जानकार नहीं था, हमने जस्ट डायल सर्विस के जरिये मौके तलाशने की कोशिश की। निर्माता शिवेंद्र सिंह डुंगरपूर को आकाश में अपार संभावनाएं नजर आई। आकाश ने उनके लिए ब्रिटैनिया बिस्किट्स का एड किया। उस वक्त आकाश केवल छ: साल का था। आकाश के पिताजी बिल्डर हैं, उन्हें समय कम मिलता है। मैंने ही किसी तरह तालमेल बैठाया। आकाश ने 75 विज्ञापन फिल्मों में काम किया। उसे कई ब्रैंडस के लिए पहचाना जाने लगा। आगे चलकर उसे भाभी धारावाहिक में काम मिला। हां, मैंने आकाश की मानसिकता ऐसी बनाई कि वह सकारात्मक ढंग से असफलता को भी स्वीकार करे। शूटिंग के दौरान मिलने वाला खाना ठीक नहीं होता। लिहाजा उसका खाना-पानी, ब्रेकफस्ट, स्नैक्स साथ लेकर जाती हूं। वह पांच-छ: साल की उम्र से काम कर रहा है, लेकिन उसने अपनी पढाई पर असर कभी पडने नहीं दिया। उसे अपनी प्राथमिकताएं समझ आने लगी हैं। हाल ही में महत्वाकांक्षी धारावाहिक में आकाश ने बाल गणेश का किरदार निभाया। ऑडिशन की सारी परीक्षाओ ं से गुजर कर आकाश उत्तीर्ण हुआ। आगे भी कम मुश्किलें नहीं थीं, उसे गणेश के किरदार के लिए कई-कई घंटे सूंड लगाकर रहना पडा। इस बीच वह कुछ खा-पी नहीं सकता था। उम्र कम होने के कारण तरस भी आता, सारी परेशानियों को आकाश ने हंसते हुए सहन किया। अब तक की उसकी जो भी उपलब्धियां हैं, उसमें हम पेरेंट्स के अलावा उसकी बहन आकांक्षा और सारे टीचर्स का भी योगदान है। उन सभी के सहयोग के बिना आकाश की यह सफलता असंभव थी।

मुझे उस पर पूरा विश्वास है

पिता, मिथिलेश कुमार शर्मा

तेजस्वी मात्र नौ महीने का था जब बिहार के आरा जिले के गांव जगदीशपुर में पोलियो का गलत इंजेक्शन लगाने से उसका पैर खराब हो गया। एक अपाहिज की जिंदगी जीना किसी कष्टदायक चुनौती से कम नहीं था। किसी तरह कक्षा तीन तक उसने वहां पढाई की और सन 2000 में हम दिल्ली आ गए। यहां उसने के.जी. से पढाई आरंभ की। जिससे कि वह इंग्लिश माध्यम में पढ सके। वह बच्चों को खेलते-कूदते देखता तो सोचता काश वह भी इन बच्चों जैसा बन पाता। दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में उसे दिखाया। उसका ऑपरेशन हुआ। पहले दो महीने प्लास्टर चढा, फिर बैसाखी दी गई। इसके बाद कैलिपर की सहायता से वह चलने लगा। मैंने उसका आत्मविश्वास हमेशा बनाए रखा। मैं खुद बहुत अच्छा योगा जानता हूं। इसलिए मैंने उसे बचपन से सिखाना शुरू कर दिया था। नब्बे प्रतिशत अंक लाने और योग्यता परीक्षा पास करने पर भी उसे प्रवेश दिलाने के लिए मुझे अतिरिक्त प्रयास करने पडे। इतनी फीस देना भी मेरे बस से बाहर था। एक दिन उसके दोस्त ने उसे बताया कियोग की स्टेट लेवल पर प्रतियोगिता होने जा रही है, तुम उसमें भाग लो। उसकी योग टीचर वंदना मैडम ने कुछ आसन और क्रियाएं पूछीं। तेजू ने सभी का जवाब मुस्तैदी से दिया। इस प्रकार उसने वाराणसी जाकर उस प्रतियोगिता में भाग लिया और स्वर्ण पदक जीता। उसने जूडो-कराटे सीखना शुरू किया। इंटरनेशनल मैथमैटिक्स ओलंपियाड में उसने स्वर्ण पदक हासिल किया। सरप्राइज हिंदी परीक्षा में वह हाईस्कूल प्रतियोगिता में प्रथम आया। अंग्रेजी सुधारने के लिए इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स किया। यहां डिबेट प्रतियोगिता में स्टार परफॉर्मर का अवॉर्ड जीता। पढने के अलावा उसे भजन लिखने का भी शौक है। वह कलेक्टर बनना चाहता है।

मेधावी है वह

मां, सीमा भटनागर

मुझे जन्म से ही आंखों की तकलीफ थी। ऑब्टिकल न‌र्व्स कमजोर हो जाने पर इन न‌र्व्स पर लाइट पडने से ही विजन क्लीयर होता है। कमजोर होने पर ही देखने में परेशानी आती है। एक दृष्टिहीन की परेशानी क्या होती है, यह मैं अच्छी तरह जानती थी। शादी के बाद मैं बच्चे को जन्म देने में इसीलिए डर रही थी, लेकिन बेटी सामान्य पैदा हुई। फिर बेटा अविचल हुआ। लगा सब कुछ ठीक-ठाक है। लेकिन अपने भीतर के संदेह को दूर करने के लिए मैं इसे इंदौर में डॉ. हार्डिया के पास ले गई। उस समय यह तीन महीने का था। गई मैं अपने लिए थी। उन्होंने चेक करते ही बता दिया कि इसे भी कॉर्निया की परेशानी है। वह दिन मैं अपने जीवन में कभी भूल नहीं पाऊंगी। इतना गहरा आघात लगा कि पूरी रात मैं रोती रही और जी भर कर भगवान को कोसती रही। डॉक्टर ने कहा कि आपका ऑप्रेशन देर से नौ साल की उम्र में हुआ था। आप इसका ऑपरेशन अभी करा लेंगी तो फायदा होगा। अपने इलाज के पैसों से मैंने उसका ऑपरेशन करा लिया। जितनी सावधानियां बरतने को कहा गया सब बरतीं। पूरी सेवा की। लगा कि शायद रास्ते आसान हो गए। लेकिन इसकी आंख में एक सफेद स्पॉट था। हम डॉक्टर के पास ले जाते वे कहते कि झिल्ली सी आ जाती है। तकनीकी जानकारी हमें थी नहीं। अलीगढ ले गए, वहां डॉक्टर ने देखकर बता दिया कि ग्लूकोमा हो गया है। उन्होंने कहा कि कॉर्निया ट्रांसप्लांट होगा, लेकिन सफलता की संभावना आधी-आधी है। आंख ठीक भी हो सकती है और जा भी सकती है। लगा कि कहीं जो रोशनी है उससे भी वंचित न हो जाना पडे। इसलिए वापस आ गए। हमने इसे ब्लाइंड स्कूल में डाल दिया। मैं जानती थी कि छोटा होने के कारण इसे बहुत परेशानियां आएंगी। अकेला और लाचार बच्चा इसे हैंडल नहीं कर सकता था। वह बीमार रहने लगा। मैं उसे वापस ले आई। इसे नेशनल ब्लाइंड एसोसिएशन में भर्ती कराया। सेंटर फॉर साइट में दिखाया तो उन्होंने बताया कि ग्लूकोमा मेच्योर हो गया है। यहां ऑपरेशन कराया 2007 में। काफी ठीक नजर आने लगा। लेकिन यह खुशी ज्यादा दिन नहीं रही। बॉडी ने कॉर्निया रिजेक्ट कर दिया। जहां से शुरू किया था वहीं वापस खडे थे। फिर उसे दिल्ली के आर.के.पुरम स्थित डी.पी.एस. में एडमिशन कराया। मुझे लगता है कि विशेष बच्चों को सामान्य धारा के बच्चों के साथ पढाने के बहुत फायदे हैं। वे दुनिया से अलग-थलग नहीं रहते। इसकी सबसे बडी खासियत यह है कि इसका दिमाग तेज है। तेजी से चीजों को ग्रहण करता है। अपने स्कूल की अनेक सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेता है। अखिल भारतीय भाषण प्रतियोगिता में अविचल को दिल्ली में पहला और राष्ट्रीय स्तर पर दूसरा पुरस्कार मिला। इसमें उसे लैपटॉप, ट्रॉफी तथा सर्टिफिकेट मिला। संगीत में उसकी रुचि है। बांसुरी बजाना उसे पसंद है। अकेले आने-जाने की असुविधा के कारण उसे सीखने में परेशानी आती है। मैं चाहती हूं कि वह स्वावलंबी बने। वह राजनेता बनना चाहता है। जिंदगी की सच्चाइयों से अभी परिचित नहीं है।

हमारे हाथ में कुछ नहीं

पिता, ब्रजमोहन

मेरे दो बेटे हैं। बेहद साधारण परिवार है हमारा। जब रितेश एक साल का हुआ तब हमें पता चला कि इसे ठीक से सुनाई नहीं देता। आर्थिक अभावों के कारण हम इसका इलाज ठीक से नहीं करा सकते थे। सुन न पाने के कारण यह बोलने में असमर्थ था। अस्पतालों के चक्कर भी लगाए, लेकिन बहुत फायदा नहीं मिला। सेाचा कि गूंगों-बहरों के स्कूल में डालूं। लेकर गया लेकिन साइन लैंग्वेज सिखाने वालों का कहना था कि यह उस श्रेणी में नहीं आता। इसे उसकी जरूरत नहीं है। सामान्य धारा वाले कहते कि यह मेन स्ट्रीम में नहीं चल पाएगा। समझ में नहीं आ रहा था कि कहां जाएं, क्या करें? एच.सी.आर.ए. (हैंडीकैप्ड चिल्ड्रन रिहैबिलिटेशन एसोसिएशन) का पता मिला। वहां ले गए। डॉक्टर ने कान में हियरिंग एड लगाने की सलाह दी। वास्तव में स्पीच थेरेपी उसके लिए जरूरी थी। उसी से कुछ सुधार की उम्मीद थी। लेकिन महंगी होने के कारण हमारे बस से बाहर थी। अब यही संस्था हमारे बच्चे की परवरिश में मदद करती है। इसी के कारण वह विशेष बच्चों के ओलंपिक में भाग ले पाया। गोल्ड मेडल जीतने की खुशी जितनी उसे है, उतनी ही हमें भी है। शायद वह कहीं और पैदा हुआ होता तो अपनी योग्यता का सही इस्तेमाल कर पाता। संस्था के हर कार्यक्रम व गतिविधियों में वह हिस्सा लेता है। बच्चे उसका मजाक बनाते, पर हम समझाते हैं। बडा भाई नौवीं क्लास में है। वह पूरे तौर पर सामान्य है। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह सक्षम बन सके और तमाम कठिनाइयों के बाद भी अपनी खुद की जगह बना सके। मेरे बस में जो कुछ भी संभव है वह मैं जरूर करूंगा। आगे उसका भाग्य है।

उसकी कामयाबी पर यकीन था

मां, आरती श्रीकांत मायदेव

जब वह पांच साल की थी। उसकी बहन मनाली एक्टिंग कर रही थी। तभी एक दिन मैंने देखा कि नन्हीं शेफाली भी उसकी नकल कर रही थी। पहले तो हम परेशान हुए। हमने उसे समझाने की बहुत कोशिश की कि बेटा पहले पढाई को अहमियत दो, इसके लिए अभी समय नहीं है। लेकिन उसने दृढता से कहा कि मैं सब कर लूंगी, मां आप चिंता न करें। उसका दृढ निश्चय देखकर हमें उसका साथ देना पडा। मैं उसके आत्मविश्वास को देखकर दंग रह गई। पहले तो यही डर था कि हम लोग मराठी हैं। हिंदी अच्छी नहीं आती, लेकिन अब तो उसने बिहारी भाषा को अपना लिया है। मैं भी मां हूं, इसलिए मुझे तो मदद करनी ही थी। मैं नौकरी करती थी। सबसे पहले इस शो के लिए ऑडिशन दिलवाने के लिए गए। जब लगा कि सलेक्शन हो गया है और उसे तब मेरी जरूरत थी। एक तो वह छोटी थी दूसरे नासमझ भी। उसे दुनियादारी की समझ ही कितनी थी। इसलिए मैंने नौकरी छोड दी। उसे समय पर सब काम कराना होता है और पढाना भी होता है। इसके लिए कई समझौते किए, लेकिन वे ऐसे समझौते हैं, जिससे मेरी और मेरे बच्चे की भलाई होनी है और वे मामूली हैं जैसे कई बार खाना नहीं बनाया। वक्त पर पहुंचना है उसके लिए भी कम कठिनाइयां नहीं झेलीं। सबसे पहले तो मराठी होने के कारण हिंदी बोलने की समस्या थी। फिर यह धारावाहिक तो बिहारी पृष्ठभूमि का होने के कारण भोजपुरी बोली से सराबोर था। लेकिन किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं आई। सब सहज ढंग से चलता रहा। पहली शुरुआत चार साल की उम्र में हुई जब इसे मराठी सीरियल में काम करने को मिला था। उसके बाद मराठी फिल्म मिली। उसके बाद हिंदी धारावाहिक अगले जनम.. में काम मिला। जब बच्चे को सफलता मिलती है, तो हर मां को खुशी होती है। मुझे भी हुई।

पूरा जीवन एक प्रतियोगिता है

मां, सायरा मुसानी

शायद आपको जान कर आश्चर्य होगा कि यह बहुत छोटी उम्र से ही कुछ अलग दिखने लगी थी। जब यह केवल दो साल की थी तभी मुझे इसके शौक और काबिलियत का अंदाजा हो गया था। वह बहुत छोटी उम्र से ही सबका ध्यान अपनी ओर खींचती। मां होने के नाते जो कुछ भी कर सकती थी मैंने किया। लेकिन इतना जरूर कहूंगी कि मैंने कुछ खास नहीं किया। वह जिस स्वभाव की थी उसके लिए यह करना जरूरी भी था। केवल इतना जरूर किया कि इसे ऑडिशन केलिए लेकर मुंबई आए। यूं हम मूल रूप से गुजरात के निवासी हैं। बाकी काम अपने आप होता चला गया समझौते हर व्यक्ति को अपने तरीके से करने ही पडते हैं। किसी की भी जिंदगी आसान नहीं। अफसा में खूबी है सबका मन जीत लेने की। इसमें उसे क्षण भर भी नहीं लगता। सबको अपना बना लेती है।

जीवन है ही एक प्रतियोगिता। इसलिए इसमें परेशानियां तो आएंगी ही। समझौते भी अपने-अपने तरीकों से करने ही पडते हैं। छोटी है उसका पूरा ध्यान रखना पडता है। हर समय उसके लिए मार्गदर्शक बनकर खडे रहना पडता है। काम के साथ-साथ उसकी पढाई का भी ध्यान रखना पडता है। वह जितनी छोटी है उसे अकेला एक क्षण के लिए भी नहीं छोडा जा सकता। यदि हमें कामयाबी चाहिए तो निरंतर आगे बढते रहना होगा। हार के डर से रुक नहीं जाना। मेरा खुद भी इस बात पर पूरा यकीन है। इसका यह पहला धारावाहिक है। इसी में व्यस्त है। काफी शोहरत भी मिल रही है। आगे क्या कैसे चलेगा अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता।

ऐसे बनें विकास में सहयोगी

1. बच्चे के सबसे करीब आप ही हैं इस निकटता का लाभ उठाएं।

2. बच्चा यह चाहता है कि बडे उस पर भरोसा करें और उसकी सहायता भी करें।

3 . यह समझने की कोशिश भी करें कि बच्चा जो व्यवहार कर रहा है उसके पीछे क्या भावना काम कर रही है।

4 . ऐसी योजना बनाएं जिससे आप बच्चे से दो कदम आगे रहें।

5 . बजाय इसके कि आप गुस्सा हों या नाराजगी दिखाएं, खुश रहें और बच्चे के साथ संतुलित व्यवहार रखें।

6 . बच्चे के लक्ष्य के प्रति लापरवाही या उदासीन रवैया न रखें, बल्कि उसे गंभीरता से लें।

7 . बच्चे की कमजोरियों को धैर्य से नियंत्रित करें और उसे सही राह पर ले जाने में मदद करें।

8 . अपने पर पूरा नियंत्रण रखते हुए सहनशीलता के साथ योजना बनाकर काम करें।

9 . मुश्किलों से घबराएं नहीं।

10 . आने वाले अच्छे कल के साथ उसके अनदेखे पहलुओं को भी नजरअंदाज न करें।

(साक्षात्कार दिल्ली से प्रीति, रतन और मुंबई से पूजा सामंत व रजनी गुप्ता)

प्रीति सेठ