बेहोशी का विज्ञान एनेस्थिसिया


बेहोश होने से अभिप्राय है शरीर में चेतना का न होना। वैसे तो जन्म से लेकर मृत्यु तक मनुष्य में चेतना रहती है, पर कुछ विशेष परिस्थितियों जैसे दर्द के दौरान और ऑपरेशन के समय चेतना का न होना ज्यादा लाभदायक होता है। इसके लिए कुछ खास दवाइयों का उपयोग किया जाता है। इन्हे एनेस्थिटिक दवाइयां या निश्चेतक कहते है।

[कोका से मिली पहली दवाई]

पहली बार वर्ष 1532 में एनेस्थिटिक गुण देखने को मिला कोका पेड़ की पत्तियों में। इसे पेरु में रहने वाले यूरोपियन लोगों ने खोजा था। वे पेड़ की पत्तियों को चबाकर उसकी लार घाव पर गिराते थे, जिससे घाव के कारण होने वाला दर्द कम हो जाता था। वर्ष 1860 में कोका की पत्तियों का सक्रिय तत्व खोजा वैज्ञानिक नीमेन ने। उन्होंने कोका की पत्तियों से एक क्रिस्टल पदार्थ निकाला और उसे नाम दिया कोकेन। इसका निश्चेतक प्रभाव उन्होंने सबसे पहले अपनी जीभ पर देखा। वर्ष 1884 में ऑस्ट्रेलियन वैज्ञानिक कोलर ने पहली बार कोकेन का उपयोग सर्जरी में किया।

[स्थानीय और सामान्य एनेस्थिसिया]

आज दो प्रकार के एनेस्थिसिया उपलब्ध है। एक है स्थानीय एनेस्थिसिया और दूसरा सामान्य एनेस्थिसिया। स्थानीय एनेस्थिसिया का उपयोग शरीर के थोड़े से भाग को चेतनाशून्य करने के लिए किया जाता है। इसमें कुछ देर के लिए एक निश्चित भाग में संवेदना खत्म हो जाती है। दूसरा प्रकार है सामान्य एनेस्थिसिया। इनका उपयोग प्राय: पूरे शरीर को सुन्न करने के लिए किया जाता है। हम यह भी कह सकते है कि इनका उपयोग बेहोश करने में किया जाता है।

आज छोटा-सा भी ऑपरेशन करने के लिए बेहोश करने वाली दवाओं की आवश्यकता होती है, लेकिन 19वीं शताब्दी के पहले सभी ऑपरेशन और दांत निकालना तक बगैर इनके किए जाते थे, जो बहुत पीड़ादायी होता था। एनेस्थिसिया के 300 सालों के इतिहास में कई खोजें हुई है और ऐसी दवाइयां विकसित की गई है, जो कम मात्रा में ज्यादा अच्छा प्रभाव दें। मौजूदा दवाइयों के असर को बढ़ाने के प्रयास भी हुए है। इसी की बदौलत आज ऑपरेशन इतने सहज हो गए है।

[हंसाती भी है बेहोशी की एक दवा]

हार्टफोर्ड में रहने वाले दंत चिकित्सक होरेस वेल्स ने वर्ष 1844 में नाइट्रस ऑक्साइड गैस को सर्जिकल एनेस्थिसिया के रूप में उपयोग किया था। वेल्स ने इस गैस के हंसाने वाले गुण को भी खोजा और इसे 'लॉफिंग गैस' नाम दिया!

[विवेक भावसार]